रविवार, 27 फ़रवरी 2011

देवमुनी भी न जान सके
सच पूछिये तो यह राज है गंगा ।
धर्म धुरीण धरा पर जो
उनके मुख की यह लाज है गंगा ।
वायु हिलोर भरे जब भूमि पे
लागे वहीं यह साज है गंगा ।
भारत भारत है सच में
यह भारत का सिरताज है गंगा ।
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पाप परात दिखात सदा
बस नाम के लेन से पावनि गंगा ।
भोले भभूत रमा विहँसे
लखि के मन से मनभावनी गंगा ।
रोज करे अभिषेक धरा का
लगे नित ही यह सावनि गंगा ।
हाड़ पड़े जिनके तन के
उनको सुरधाम पठावनि गंगा ।

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011


छूवत ना यमदूत उन्हें

जिनके मुख बूंद विराजत गंगा।

छूने की कोशिश जो करते

हटते यह देख कि छाजत गंगा ।

पापी पुराने भले रहते पर

मुक्ति के द्वार ये साजत गंगा ।

पाप की कालिख धोने की खातिर

धर्म के तत्त्व से माजत गंगा ॥

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011


गं से गणेश पुजावत आदि हैं

अक्षर आदि तुम्हारा है गंगा ।

गाय में तैतिस कोटि बसे सुर

गा वह रूप तुम्हारा है गंगा ।

विघ्न विनाशिनि औ जग पालिनि

पावन नीर तुम्हारा है गंगा

तेरे बसे से जो भूमि है स्वर्ग समान

वो भारत प्यारा है गंगा ॥

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011


दूर करें सब विघ्न गणेशजी

ध्यान तुम्हीं दिलावावो हे गंगा ।

प्रेरणा के संग काव्य में शक्ति दो

छंद मुझे लिखवावो हे गंगा ।

मानव जीवन सार्थक मुक्ति हो

मार्ग मुझे वो दिखावो हे गंगा ।

लोकोपकार की बात करूँ अस

पुण्य का फूल खिलावो हे गंगा ॥

* * *

मातु पिता कुल तार सकूँ तुम

ऎसी मुझे अभिव्यक्ति दे गंगा ।

भावमयी सद्भाव की भूमि दो

भूलूं नहीं वह भक्ति दे गंगा ।

भारत वर्ष में जन्म हूँ पाया तो

भारत में अनुरक्ति दे गंगा ।

अर्थ हो धर्म हो काम हो मोक्ष हो

सर्व समर्थ हों शक्ति दे गंगा ॥

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011


नाम तिहारो असंख्य अनंत

कहो किस भांति गिनाऊंगा गंगा ।

है इतना ही जो याद मुझे

उसको दोहरा के सुनाऊंगा गंगा ।

जो मुझको विसरा तुम दी तो

बताओ कहाँ फिर जाऊंगा गंगा ।

दूर रहूँ मजबूर रहूँ हर

हाल में मातु बुलाऊंगा गंगा ॥

* * *

पाप करूँ मैं न दूर से देखूं भी

पाप से मोहे विरक्ति दे गंगा ।

ताप हरूं सभी दीन जनों के

करूँ उपकार वो भक्ति दे गंगा ।

आप में भूला नहीं रहूँ , राष्ट्र के

काज करूँ अनुरक्ति दे गंगा ।

बाप औ मई सुने सुरधाम से

काव्य के छंद में शक्ति दे गंगा ॥

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011


नाम तुम्हारा अनेक शिवा ,

शिवदा, कहता कोई वारिणि गंगा ।

धाम तुम्हारा किनारा लगे , तुम

ताप मिटाती हो तारिणि गंगा ।

वाम कभी ग्रहगोचर हों तो

कुभाव की हो तुम हारिणि गंगा ।

काज बने जन , जीव या जंतु के ,

कारक हो तुम कारिणि गंगा ॥

शास्त्र पुराण सभी कहते

तुम धर्म हो , धर्म कपाट हो गंगा ।

साधना तो कभी मैंने किया नहीं

पापों की तू बस काट हो गंगा ।

आतमा त्यागे कभी यह चोला तो

आँखों में विष्णु विराट हो गंगा ।

एक निवेदन है तुमसे बस

तेरी ही गोद हो घाट हो गंगा ॥

मानव योनि मिले जो कभी

मतिमान बनूँ कविता संग गंगा ।

ब्राह्मण के घर आऊं कभी

विद्वान बनूँ पविता संग गंगा ।

भाग्य की लेख खडी हो लिखाना

तुम्हीं बनना भविता मम गंगा ।

जीवन साथी जो देना तो देना

मुझे फिर से सविता संग गंगा ॥