मंगलवार, 20 मार्च 2012

कबीर है गंगा ..

है  जनरूप ये  भागीरथी  इसे 
मानिए  आप  शरीर  है  गंगा . 
बाँटती  ही  रहती  है  निरंतर 
अमृत  बूंद  औ  क्षीर  है गंगा . 
भाव से आप बुलाइये आएगी 
भक्त  लिए  ही  अधीर है गंगा . 
ठाँव - कुठाँव  नहीं     लखती 
रखती पत को ये कबीर है   गंगा .

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