है जनरूप ये भागीरथी इसे
मानिए आप शरीर है गंगा .
बाँटती ही रहती है निरंतर
अमृत बूंद औ क्षीर है गंगा .
भाव से आप बुलाइये आएगी
भक्त लिए ही अधीर है गंगा .
ठाँव - कुठाँव नहीं लखती
रखती पत को ये कबीर है गंगा .